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Tuesday, 30 August 2016

Zam Zam Ka Kuaa.n In Hindi

ज़मज़म का कुआँ


और_हज़रत अब्दुल_मुत्तलिब_का ‪#‎ख़्वाब‬

हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम अल्लाह के हुक्म से अपने दूध पीते बेटे हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम और उनकी माँ हज़रत हाजरा को लेकर वादी-ए-फ़ारान (जहाँ आज मक्का शहर आबाद है) के पहाड़ों के बीच तपते सेहरा (रेगिस्तान) में छोड़ आए, जहाँ न पानी था न कोई इन्सान...।

एक खजूर का थेला और पानी का एक मश्कीज़ा (छोटी मश्क चमड़े का थेला जिसमें पानी रहता है) देकर बग़ैर कुछ कहे चल दिये तो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की बीवी हज़रत हाजरा उनके पीछे चली और पूछने लगीं:-
ऐ इब्राहीम! आप हमको इस बयाबान जगह में अकेला छोड़कर कहाँ जा रहे हैं...? यहाँ न कोई इनसान है और न ज़िन्दगी को बाक़ी रखने वाली कोई चीज़ है...।
हज़रत हाजरा ने यह फरियाद बार-बार की लेकिन हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने खुदा के हुक्म की वजह से कोई जवाब न दिया...।

फिर हज़रत हाजरा ने पूछा:-
क्या अल्लाह ने आपको इस का हुक्म दिया है...?
तब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने हाँ में जवाब दिया...।
तो हज़रत हाजरा ने कहा:- फिर अल्लाह हमें बर्बाद नहीं करेगा...।
यह कहकर हज़रत हाजरा अपनी जगह वापस आ गईं...। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम भी चले गए...।

खजूर, पानी जो इब्राहीम अलैहिस्सलाम छोड़कर गऐ थे ख़त्म तो होना ही था, माँ को भी भूख और प्यास लगी और बेटे को तो लगनी ही थी, आख़िर दूध पीता बच्चा था...।

माँ (हज़रत हाजरा) बच्चे को प्यासा देखकर पानी की तलाश में बेक़रारी (परेशानी) की हालात में उठीं और क़रीब ही एक पहाड़ी (सफा) पर चढ़ गईं और आस-पास वादी में पानी तलाश करने लगीं... लेकिन कुछ हासिल न हुआ...।
फिर इसी तरह तड़पते दिल के साथ वापस उतरीं और वादी (घाटी) पार करके दूसरी पहाड़ी (मरवा) पर चढ़कर पानी तलाश करने लगीं...। इस तरह अपनी ममता और बेचैनी के साथ सात बार इन दोनों पहाड़ियों के दरमियान दौड़ी मगर पानी हासिल न हुआ...।
आख़िरी बार जब मरवा पहाड़ी पर चढ़ीं तो अपने बच्चे हज़रत इस्लाम अलैहिस्सलाम के पास एक फ़रिश्ता देखा और हज़रत इस्लाम की ऐड़ी की जगह से पानी उबलता देखा... हज़रत हाजरा उस पानी को मिट्टी से घेरने लगीं और कहा- ''ज़म ज़म'' यानी रुक जा रुक जा,
तभी से इसका नाम ज़मज़म पड़ गया...।

क़बीला जुरहुम यमन का रहने वाला था, अल्लाह की मर्ज़ी कि यमन में कहत (सूखा) पड़ा, इस वजह से बनू जुरहुम कारोबार और रोज़ी-रोटी की तलाश में यमन से निकले, इत्तफ़ाक़ से रास्ते में ज़मज़म कुएँ के पास हज़रत हाजरा और उनके बेटे हज़रत इस्माईल से मुलाकात हो गई...।

क़बीला जुरहुम को पानी की वजह से यह जगह पसंद आई और हज़रत हाजरा की इजाज़त से वहीं बस गऐ...।

काफ़ी दिनों के बाद एक बस्ती बस गई हज़रत इस्माईल की शादी भी इसी क़बीले में हो गई...।
अल्लाह के हुक्म से हज़रत इब्राहीम को ख़ाना काबा (अल्लाह के घर) की जगह बताई गई और हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल ने मिलकर ख़ाना काबा को तामीर किया... उस जगह को मक्का कहने लगे...।
ख़ाना काबा व मक्का के हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम सरदार हुऐ...।

फिर आपकी वसीयत के मुताबिक़ आपके बेटे क़ीदार ख़ाना काबा के मुतवल्ली हुऐ...।
इस तरह बनू इस्माईल (हज़रत इस्माईल की औलाद) ख़ाना काबा के मुतवल्ली (प्रबंधक और मुन्तिज़म) होते रहे...।
काफ़ी दिनों बाद बनू इस्माईल और बनू जुरहुम में लड़ाई हो गई और बनू जुरहुम ग़ालिब आ गऐ और मक्का पर जुरहुम की सरदारी क़ायम हो गई...।

कुछ ही वक़्त गुज़रा था कि जुरहुम के हाकिम लोगों पर जुल्म व सितम करने लगे, यहाँ तक जुल्म किया कि औलादे इस्माईल मक्का से निकल कर आस-पास के इलाकों मे आबाद हुई...।
जब जुरहुम का जुल्म और ख़ाना काबा की बेहुरमती (अनादर) हद से ज़्यादा बढ़ गई तो तरफ़ से अरब क़बीले बनू जुरहुम के मुक़ाबले के लिये खड़े हो गए...।
बनू जुरहुम को मक्का से भागना पड़ा,
लेकिन जिस वक़्त मक्के से निकले तो ख़ाना काबा की चीज़ो को, ज़मज़म के कुएँ में दफ़न कर गए और ज़मज़म के कुएँ को इस तरह बंद कर गए कि ज़मीन के बराबर हो गया और कुएँ का नाम व निशान बाक़ी न रहा...।

बनी जुरहुम के मक्का से चले जाने के बाद बनू इस्माईल मक्का में आकर फिर से आबाद हो गए मगर ज़मज़म के कुएँ की तरफ़ किसी का ध्यान न गया, यहाँ तक कि सैकड़ों साल के बाद जब मक्का की हुकूमत व सरदारी हज़रत अब्दुल-मुत्तलिब के क़ब्ज़े में आई और अल्लाह ने चाहा कि ज़मज़म का कुआँ जो बहुत दिनों से बन्द और बे नाम व निशान पड़ा है खोला जाए... तो अल्लाह तआला ने हज़रत अब्दुल-मुत्तलिब को सच्चे ख़्वाब के ज़रिये उस जगह के निशानात और ज़मज़म के कुएँ को खोदने का इशारा दिया...।

हज़रत अब्दुल-मुत्तलिब कहते हैं कि मैं हतीम (ख़ाना काबा के खुले हिस्से) में सो रहा था कि एक आने वाला मेरे पास आया और मुझसे ख़्वाब में यह कहा कि "बर्रा को खोदो..." मैंने मालूम किया कि बर्रा क्या है...?
तो वह चला गया...।
फिर अगले दिन उसी जगह सो रहा था कि ख़्वाब में देखा कि वही शख़्स कह रहा है: "मज़नूना को खोदो..."
मैंने मालूम किया कि मज़नूना क्या है...?
वह फिर चला गया...।
तीसरे दिन फिर उसी जगह ख़्वाब में देखा कि वह यह कह रहा है "तैबा को खोदो...।"
मैंने मालूम किया कि तैबा क्या है...?
वह शख़्स फिर चला गया...।
चौथे दिन फिर उसी जगह यह ख़्वाब देखा कि वह शख़्स कहता है कि "ज़मज़म को खोदो...।"
मैंने कहा ज़मज़म क्या है...?
उसने जवाब दिया "वह पानी का कुआँ है जिसका पानी कभी ख़त्म नहीं होगा, बेशुमार हाजी और लोग उसका पानी पीते रहेंगे...।"

हज़रत अब्दुल-मुत्तलिब ने अपना ख़्वाब कुरैश से बताया और कहा "मेरा इरादा इस जगह को खोदने का है...।
कुरैश ने मुख़ालफ़त की, मगर अब्दुल-मुत्तलिब न मानें और अपने बेटे हारिस को लेकिर खोदना शुरू किया
अब्दुल-मुत्तलिब ने खुशी से अल्लाह हू अक़बर (अल्लाह सबसे बड़ा है) का नारा लगाया और यह कहा "यही हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम का कुआँ है...।"

खुदाई के दौरान यह वाक़िआ हुआ कि जब ज़मज़म का कुआँ मिल गया तो कुरैश ने अब्दुल-मुत्तलिब से झगड़ना शुरू कर दिया कि हमें भी खुदाई में शामिल करो...।
अब्दुल-मुत्तलिब ने कहा "मैं ऐसा नहीं कर सकता, और उन्होंने मना कर दिया...।"

तारीख़ ए मक्का

(आख़िरी नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम, पेज 60-63)

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